隣 दीवारों के पार की आवाज़ – कुमार जितेन्द्र की जेल डायरी

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 अध्याय 3: वापसी उन्हीं दीवारों के भीतर
 (सन् 2018 – अंबिकापुर सेंट्रल जेल)

✍️ “जिस जेल से आज़ाद हुआ था, वहीं लौटना पड़ा — फर्क बस इतना था कि इस बार मैं टूटकर नहीं, थोड़ा समझदार होकर आया था।”

 जब मैंने अपनी ही गिरफ्तारी की भविष्यवाणी की थी

“शानदार 2009 के बाद, पुनः सौभाग्य प्राप्त होगा साज़िशों के जाल में प्रवेश करने का…”

इन पंक्तियों को मैंने खुद 6 दिन पहले लिखा था।
और 16 दिसंबर 2018 को, ये भविष्यवाणी सच साबित हुई।

सत्ता की बेचैनी, पुलिस की रहस्यमयी चुप्पी और कुछ पत्रकारों की खामोशी…
सब कुछ इशारा कर रहा था कि कुछ बड़ा होने वाला है।

इस बार मैंने खुद से कहा —
“गिरफ्तारी होगी, लेकिन डरूंगा नहीं…”

 16 दिसंबर 2018 — जब अपहरण हुआ, गिरफ़्तारी के नाम पर

शाम लगभग छह बजे।
मैं घर लौट रहा था — गाड़ी सर्विस में थी, एक मित्र साथ थे।
तभी एक और मित्र का कॉल आया — “पेट्रोल खत्म हो गया है, मुझे लेने आओ।”

मैं गाड़ी मोड़ ही रहा था कि अचानक सिविल ड्रेस में एक मूंछों वाला आदमी सामने वाली सीट पर आ बैठा —
मनीष यादव, तत्कालीन क्राइम ब्रांच प्रभारी।
पीछे दो और पुलिसकर्मी सवार हो गए।

मनीष ने पिस्तौल डैशबोर्ड पर रखते हुए कहा —
“गाड़ी बढ़ाओ…”

⚠️ न वारंट, न नोटिस — सिर्फ गन और डर

कोई एफआईआर नहीं, कोई कारण नहीं।

मैंने हिम्मत दिखाते हुए गाड़ी को पास के पेट्रोल पंप में मोड़ा —
जहाँ CCTV था।

तभी मुझे जबरन पीछे की सीट पर बीच में बिठाया गया — दोनों ओर पुलिसकर्मी।

 सुनसान होटल — धमकी और डर की योजना

करीब 20 किमी दूर एक होटल में गाड़ी रुकी।
सभी पुलिसकर्मियों ने खाना मंगाया।
मुझे बाथरूम की इजाजत दी गई।

वापस लौटने पर मनीष यादव ने गन दिखाकर कहा —
“बहुत लिखते थे न एसपी के बारे में? अब बताएँगे पत्रकारिता का मतलब!”

मैंने जवाब दिया —
“अगर मारना है, सिर में मारना। दिमाग़ ही मेरा हथियार है।”

इसके बाद — आँखों पर काली पट्टी, हाथ गमछे से बाँधे गए।

️ अज्ञात जगह, अज्ञात डर

करीब एक घंटे बाद, मुझे एक सुनसान इमारत में बंद कर दिया गया।

फिर शुरू हुई पूछताछ —
“फलाँ नक्सली को कैसे जानते हो?”
“किसके कहने पर लिखते हो?”
“क्यों पुलिस के खिलाफ हो?”

मैंने हर बार एक ही जवाब दिया —
“आपके पास मेरा फोन है, जांचिए। जो मिले, सज़ा दीजिए। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूँगा।”

️ पूरी रात — सवाल, धमकियाँ, और आँखों पर अंधेरा

पट्टी नहीं हटाई गई।
पूरी रात सवाल, गालियाँ, और धमकियाँ…

“तुम पुलिस परिवार से होकर भी पुलिस के ख़िलाफ़ लिखते हो?”
“अगर पुलिस परिवार से नहीं होते, आज कुछ और होता…”

मैं चुप रहा।
सच पर डटा रहा।

 सुबह — रोशनी में भी साज़िश

सुबह पट्टी हटाई गई —
तेज़ रोशनी आँखों में चुभ रही थी।

कई अफसर मुझे घेरे हुए थे —
कोतवाली निरीक्षक विनय सिंह बघेल, यातायात प्रभारी दिलबाग सिंह, और कई अन्य।

कंप्यूटर पर मेरे ख़िलाफ़ स्क्रिप्ट तैयार हो रही थी।

एक ने पेट में लात मारी —
“तू तो नचनिया थानेदार लिखता है!”
दूसरा बोला —
“ईसे ऐसे फँसाओ कि जेल से बाहर न निकले!”

फर्जी आरोप तैयार थे।

मुझे कोर्ट में पेश किया गया —
फिर वही आदेश: न्यायिक अभिरक्षा।

️ अंदर की दुनिया — फिर वही अंबिकापुर सेंट्रल जेल

9 साल बाद — फिर उसी जेल का फाटक।

अब कोई डर नहीं था।
बस एक सवाल: “कब तक?”

पहली रात ही एक बंदी बोला —
“आप वही हो न, जो पहले भी आए थे?”

मैंने चुपचाप सिर हिला दिया।

隣 बैरक वही, सोच अब बदल चुकी थी

अब मैं ‘नया बंदी’ नहीं था।
बंदी दस्तावेज़ लेकर मेरे पास आने लगे।
कई लोग सुबह से मेरा इंतज़ार करते थे —
“भैया, आप बताओ — मैं छूट जाऊँगा?”

मैं वकील नहीं था,
लेकिन शायद उम्मीद बन चुका था।

 दो दिन बाद — ज़मानत मिली, लेकिन…

सिर्फ दो दिन में जमानत हो गई।
पर ये दो दिन — एक जीवन की सोच को बदलने के लिए काफी थे।

जेल सिर्फ शरीर को नहीं —
सोच को भी कैद करती है।

जैसे ही जेल का फाटक पार किया —
वही पुराना अहसास:

 कुछ लोग सलाखों के अंदर हैं, कुछ बाहर —
लेकिन असली कैद उन विचारों की है,
जो हमें सच बोलने से रोकती हैं।

 क्रमशः…
隣 अगला अध्याय:
“अध्याय 4: रायपुर की दीवारें — सत्ता की सबसे बड़ी साज़िश”
 जल्द ही…

️ लेखक: कुमार जितेन्द्र
 श्रृंखला: दीवारों के पार की आवाज़ — एक पत्रकार की जेल डायरी

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