दीवारों के पार की आवाज़ — एक पत्रकार की जेल डायरी

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कुमार जितेन्द्र की कलम से
 “सच को पराजित नहीं किया जा सकता…”

अध्याय 1: जब खबर खुद खबर बन गई (2009)

साल 2009, एक पत्रकार सच्चाई की तलाश में गाँव पहुँचा। वहाँ के ग्रामीण घटिया सड़क निर्माण से परेशान थे। पत्रकार कुमार जितेन्द्र ने जमीनी हकीकत सामने लाने की ठानी, लेकिन कुछ ही घंटों में कहानी बदल गई।

स्थानीय सरपंच ने पत्रकार पर उल्टा आरोप मढ़ दिया — “यह अवैध वसूली करने आया है।”
लोकल पत्रकारों की चुप्पी और पुलिस की तत्परता से षड्यंत्र की बू आने लगी। FIR, गवाह और बयान मानो पहले से तैयार थे। बिना सुनवाई के उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।

अध्याय 2: सलाखों के पीछे की सच्चाई

पहली बार जेल की सलाखों के भीतर कदम रखते ही एक सिहरन सी दौड़ गई। अपराधियों के बीच खड़ा यह पत्रकार डरा-सहमा था। लेकिन एक नक्सली बंदी की एक पंक्ति ने राहत दी —
“पत्रकार हो? आओ, मेरे बगल में सो जाओ।”

जेल में दिन शुरू होता सीटी से, और खत्म होता अनगिनत सवालों के साथ —
“मैं कब बाहर निकलूँगा?”
“क्या मेरी बात कोई सुनेगा?”

धीरे-धीरे जितेन्द्र को जेल की दुनिया समझ आने लगी। वहाँ बंद कई लोग अपराधी नहीं, बल्कि सिस्टम की लापरवाही और मजबूरी के शिकार थे। कोई बीवी के झूठे केस में था, तो कोई वकील न कर पाने के कारण सालों से अटका हुआ।

एक दिन एक जेल अधिकारी ने पहचान दी —
“इन्हें कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। पत्रकार हैं।”
यह पहचान धीरे-धीरे भरोसे में बदल गई।

अब कैदी अपने केस लेकर उनके पास आते थे। जितेन्द्र वकील नहीं थे, लेकिन ‘सुनने वाला इंसान’ जरूर बन गए थे — और वही सबसे बड़ी राहत थी।

10वें दिन उन्हें सशर्त ज़मानत मिल गई।

जेल से निकलते वक्त, पीछे मुड़कर देखा —
वहाँ की आँखें अब उन्हें ‘पत्रकार’ नहीं,
एक उम्मीद समझ रही थीं।

 फिर 2014 में, उन्हें उस झूठे केस में दोषमुक्त घोषित किया गया।
पाँच साल बाद सत्य सामने आया — और साबित हुआ कि सच को पराजित नहीं किया जा सकता।

✨ क्रमशः…
अगला अध्याय जल्द — “2018: वापसी उन्हीं दीवारों के भीतर (अंबिकापुर सेंट्रल जेल)”

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