“पत्रकारिता अपराध नहीं है: भारत में मीडिया पर बढ़ता कानूनी शिकंजा”

Uncategorized

नई दिल्ली से रिपोर्ट:
भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता एक गंभीर मोड़ पर खड़ी है। पिछले एक दशक में पत्रकारों पर आपराधिक मामलों की बाढ़-सी आ गई है। 2012 से 2022 के बीच 427 पत्रकारों के खिलाफ 423 आपराधिक केस दर्ज हुए। ये चौंकाने वाले आंकड़े “Pressing Charges” नामक एक शोध परियोजना में सामने आए हैं, जिसे नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ट्रायलवॉच, और कोलंबिया लॉ स्कूल के ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूट ने मिलकर अंजाम दिया है।

 आरोपों की सूची डराती है:
इन मामलों में सबसे आम आरोप हैं:

देशद्रोह (IPC धारा 124A)

सांप्रदायिक तनाव फैलाना (धारा 153A)

सरकारी कार्य में बाधा डालना (धारा 186)

और आईटी अधिनियम के तहत सोशल मीडिया पोस्ट्स पर कार्रवाइयाँ

吝 रिपोर्टिंग का विषय बना कारण:
सरकार की आलोचना, अल्पसंख्यकों के अधिकार, भ्रष्टाचार, कोविड-19 की नीतियाँ, और सामाजिक आंदोलनों पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार निशाने पर रहे।

 प्रक्रियात्मक उत्पीड़न बना हथियार:
रिपोर्ट में बताया गया है कि सिर्फ एफआईआर ही नहीं, बल्कि बार-बार थाने बुलाना, तकनीकी उपकरण जब्त करना, और मुकदमों में सालों की देरी पत्रकारों को डराने और तोड़ने के हथियार बन चुके हैं।

 राज्यवार आंकड़े:
छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, कश्मीर, असम और झारखंड — इन राज्यों में पत्रकारों पर सबसे ज़्यादा मामले दर्ज हुए हैं।

️ जमीनी पत्रकारों की दर्दभरी दास्तान:
छत्तीसगढ़ के राजेश यादव (नाम बदला गया) कहते हैं:

> “मैंने बस पंचायत में फंड घोटाले की रिपोर्टिंग की थी। अगले दिन मेरे खिलाफ देशद्रोह की FIR हो गई।”

उनका फोन जब्त कर लिया गया, परिवार को पूछताछ के लिए बुलाया गया, और धमकियाँ मिलनी शुरू हो गईं।

 मानसिक और आर्थिक प्रताड़ना की कीमत:
दिल्ली की स्वतंत्र पत्रकार नेहा शर्मा बताती हैं:

> “मैंने कोविड अस्पतालों की स्थिति उजागर की। बाद में केस दर्ज हुआ, लैपटॉप जब्त हुआ और बार-बार थाने बुलाया गया।”

⚖️ न्यायिक देरी: करियर पर संकट
चार्जशीट दाखिल न होने से मामले सालों तक लटकते हैं, जिससे पत्रकारों का करियर, मानसिक स्वास्थ्य और आजीविका तीनों खतरे में पड़ जाते हैं।

隣 लोकतंत्र की नींव हिल रही है:
प्रो. अर्पिता सेन कहती हैं:

> “पत्रकार लोकतंत्र की आंख और कान हैं। अगर इन्हें चुप करा दिया गया, तो जनता अंधेरे में रह जाएगी।”

 संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग है।

✅ रिपोर्ट की सिफारिशें:

एफआईआर दर्ज करने से पहले स्वतंत्र समीक्षा व्यवस्था बने

पत्रकारों के मामलों की फास्ट-ट्रैक कोर्ट में सुनवाई हो

पुलिस को मीडिया मामलों की जांच में स्पष्ट दिशानिर्देश दिए जाएं

न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए

️ निष्कर्ष:
पत्रकारिता कोई अपराध नहीं है। सवाल पूछना देशद्रोह नहीं हो सकता। अगर सच्चाई बोलने वालों को अपराधी बना दिया गया, तो झूठ को ताक़त मिलती है।

 “Pressing Charges” जैसी रिपोर्टें हमें सिर्फ आंकड़े नहीं बतातीं, बल्कि एक चेतावनी देती हैं—अगर अब नहीं चेते, तो कल शायद देर हो जाएगी।

 (वीडियो क्लिप / विजुअल सुझाव):

जेल के बाहर खड़े पत्रकारों के फुटेज

कोर्ट में पेश होते रिपोर्टर्स

न्यूज रूम में खाली कुर्सियाँ

अंत में स्क्रीन पर पंक्ति: “पत्रकारिता अपराध नहीं है”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *